एक साधारण सा नियम है,जब हम किसी से बात करतें हैं तो एक वक्त पे एक बोलता है,दूसरा सुनता है...ऐसा ही हमारे अन्दर भी होता है...दिल और दिमाग दोनों कुछ कहना चाहते हैं...हम ज़्यादातर दिमाग की बात सुनते हैं, मान भी लेते हैं...मैंने भी कुछ ऐसा ही किया है...मगर इसी के चलते...दिल बेचारा बोलना भूल गया...इससे पहले की वो अन्दर ही अन्दर घुट जाए...ये एक कोशिश है अपने दिल की बात सुनने की...उन बातों को लफ़्ज़ों में पिरोने की..और उसके साथ-साथ, खुद से रिश्ता जोड़ने की...इससे ज्यादा कुछ नहीं...